श्रीमद्भगवद्गीता और मानव जीवन



परिचय :- 

              पांडवों की ओर से सभी प्रकार के प्रयास किए जा चुके थे, भगवान श्रीकृष्ण भी दुर्योधन के पास अंतिम प्रस्ताव लेकर गए थे, किन्तु अहंकार और सत्ता के मद् में उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। वो तो केवल युद्ध चाह रहा था। या तो आर या तो पार जाना चाहता था। भगवान ने भी युद्ध का मन बना ही लिया था। दोनों ओर के सभी योद्धा युद्ध के लिए तैयार थे। सेनाओं का आह्वान हो चुका था। कुरूक्षेत्र की पावन धरा भीषण युद्ध की रणभूमि के लिए तैयार थी। किन्तु भगवान के रथ पर बैठे अर्जुन ने भगवान को आदेश किया कि रथ को दोनों सेनाओं के बीच में लेकर चलों और बाद में अर्जुन ने भगवान से निवेदन किया की उसे युद्ध टालने का उपाय बताए क्योंकि शत्रु सेना के रूप में भी उसके अपने सगे-संबंधी खड़े है और वो उनसे युद्ध करने में असहज है…..

           और यहां से प्रारंभ होता है भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा दिया गया महाज्ञान जिसे हम श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जानते है। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद को सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। जिससे समाज के सामान्य जन भी श्रीमद्भगवद्गीता के ब्रह्म ज्ञान को समझ सकें और अपने निजी जीवन में उस ब्रह्म ज्ञान का अनुसरण कर अपने जीवन को सार्थक बना सकें।


भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद प्रारम्भ -


अर्जुन अपने सगे-सम्बंधियो को शत्रु के रूप मे अपने विरुद्ध देखने के बाद भी समझने को तैयार नही था कि युद्ध मे रणभूमि पर सामने की सेना मे जो भी सैनिक होते है वे केवल हमारे शत्रु होते है. अर्जुन बार बार भगवान श्री क्रिष्ण से युद्ध को टालने के लिये कह रहा था. लेकिन अर्जुन यह समझने को भी तैयार नही था कि रणभूमि मे सेनाओ के उतरने के बाद युद्ध को केवल लडा जाता है. उसे टाला नही जाता है.

अध्याय – 1

                 इस संवाद मे अर्जुन सम्पूर्ण हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे है. अर्जुन के मन के भीतर वो सभी शंका-आकांशा विद्यमान है जो शंकाए वर्तमान मे हिंदुओ के भीतर स्थित है. वर्तमान हिन्दु समाज भी भारत मे निवासरत सभी अन्य वर्गो को अपना ही मानता है. भले ही उसके अपने गुरु, पितामह, भाई, बंधू-बांधव सभी उसके विरुद्ध ही क्यो ना खडे रहे.